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Tuesday, January 26, 2010
६० साल का भारत
भारतीय गणतंत्र आज साठ साल का हुआ। यानी इसके क्या मायने हैं? वह साठ साल का बुड्ढा हुआ या पट्ठा हुआ? अपने गांवों में कहते हैं, साठा सो पाठा। सचमुच 60 साल का भारत अब पट्ठा हुआ जा रहा है। ये 60 साल तो सिर्फ कहने के लिए हैं। ऐसे साठ साल भारत के इतिहास में सैकड़ों बार आ चुके हैं। जब यूनान और रोम, गणतंत्र की सिर्फ कामना करते थे, भारत में गणराज्य या नगर राज्यों की परंपरा काफी पुरानी पड़ चुकी थी। कहीं इस महान परंपरा का प्रभाव ही तो नहीं है, जिसके कारण हमारे गणतंत्र के पिछले साठ साल यूरोप और अमेरिका के गणतंत्रों और लोकतंत्रों से कहीं बेहतर सिद्ध हुए हैं? 26 जनवरी 1950 को भारत ने जो संविधान अपने लिए स्वीकार किया था, वह आज भी दनदना रहा है, जबकि हमारे अड़ोसी-पड़ोसी देशों में उनके संविधान पांच-पांच छह-छह बार बदल चुके हैं। भारत गणतंत्र हुआ, उसके पहले दिन ही हर आदमी और हर औरत को वोट का अधिकार मिल गया, जबकि ब्रिटेन maignakarta (12 15) के बाद इसी काम के लिए 700 साल लग गए, अमेरिका को गृह-युद्ध की विभीषिका से गुजरना पड़ा, अनेक यूरोपीय राष्ट्रों को रक्त-स्नान करना पड़ा और आज भी चीन और रूस जैसे शक्तिशाली और बड़े राष्ट्र लोकतांत्रिक व्यवस्था से काफी दूर हैं। परंपरा की घुट्टी में पिसा हुआ लोकतंत्र का संस्कार हमारे यहां इतना प्रबल है कि भारत आज दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश कहलाता है, जबकि उसके आस-पास के कई देशों में या तो फौजी तख्ता पलट हो चुके हैं या वे गृह-युद्ध की गिरफ्त में फंसे हुए हैं। भारत ने लोकतंत्र को जिंदा रखा है और लोकतंत्र ने भारत को जिंदा रखा है। हमारे देखते-देखते कितने देश टूट गए? पाकिस्तान, सोवियत संघ, यूगोस्लाविया, चेकोस्लोवाकिया! कितने ही देश टूटे तो नहीं लेकिन टूटे जैसे दिखाई पड़ते हैं, जैसे अफगानिस्तान, नेपाल, श्रीलंका, सोमालिया, इराक, जार्जिया आदि लेकिन भारत है कि आकार और जनसंख्या में इतना बड़ा होते हुए भी 60 साल से सही-सलामत ही रहा है। बल्कि कुछ बढ़ा है। गोवा और सिक्किम जुड़े हंै। लद्दाख और कश्मीर में कुछ नुकसान जरूर हुआ है, लेकिन ये क्षेत्र पहले से ही विवादास्पद थे।भारत की लोकतांत्रिकता पश्चिम के राष्ट्रों से इस अर्थ में भी बेहतर है कि वहां फासीवाद और नात्सीवाद का उदय हुआ और उन देशों के दलन के लिए सारे संसार को विश्व युद्ध में उतरना पड़ा लेकिन आपातकाल के थोड़े से बुखार के अलावा भारत का लोकतंत्र कभी किसी अस्पताल में भर्ती नहीं हुआ। साठ साल का हमारा गणतंत्र कितना स्वस्थ और परिपक्व है कि जिस बात पर अमेरिका 200 साल बाद गर्व कर रहा है यानी ओबामा का राष्ट्रपति बनना, वह हमारे यहां गणतंत्र के 17वें साल (1967) में ही हो गया। काबुल के ek dost ne मुझसे पूछा था कि ‘मुल्के-हिंदुस्तान का बादशाह एक मुसलमान कैसे बन गया?’ क्या यह कम बड़ी बात है कि इस देश में राष्ट्रपति दलित होता है, प्रधानमंत्री सिख होता है, उपराष्ट्रपति मुसलमान होता है, लोकसभा का अध्यक्ष एक कम्युनिस्ट होता है और प्रतिपक्ष का नेता पाकिस्तान के सिंध में पैदा हुआ होता है और सारी व्यवस्था ठीक-ठाक चल रही होती है। यह भारतीय गणतंत्र का चमत्कारिक स्वरूप ही है कि इटली में पैदा हुई एक गौरांग महिला सत्तारूढ़ दल की अध्यक्ष है और उसके सम्मान और स्वीकृति में कहीं कोई कसर नहीं है। सहिष्णुता और समन्वय लोकतंत्र का प्राण है और भारत उसका साक्षात प्रमाण है। यदि हम पलटकर देखें तो हमारा सीना गर्व से फूले बिना नहीं रहेगा। 60 सालों में हम कहां से कहां पहुंच गए। जब भारत आजाद हुआ, तब हम सुई भी नहीं बना सकते थे लेकिन अब वही लंगोटधारी भारत हवाई जहाज और रॉकेट बना रहा है, अंतरिक्ष-यान और मोटरें बना रहा है और संसार का छठा परमाणु शक्तिसंपन्न राष्ट्र बन गया है। कुछ ही वर्षो में वह दुनिया की तीसरी आर्थिक महाशक्ति बन जाएगा। 36 करोड़ लोगों का भारत अब 116 करोड़ का हो गया है लेकिन उसके नेताओं को अब अनाज और डॉलरों के लिए किसी मालदार देश के सामने झोली नहीं फैलानी पड़ती। अब तो यह विचार भी हवा में तैर रहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की तरह हर नागरिक को भोजन का अधिकार भी मिले। 1950 में भारत में प्रति व्यक्ति आय सिर्फ 255 रुपए थी। आज वह 37,500 रुपए है। पहले सिर्फ 16 प्रतिशत लोग साक्षर थे, अब 68 प्रतिशत हैं। जो भारत कल तक यूरोप के छोटे-छोटे देशों से कर्ज मांगता था, आज उसने अफगानिस्तान में 6-7 हजार करोड़ खर्च किए हैं और हाल ही में बांग्लादेश को 4,500 करोड़ रुपए का अनुदान दिया है। आर्थिक प्रगति तो चीन ने भी की है लेकिन चीन में नागरिक अपने मुंह का इस्तेमाल सिर्फ खाने के लिए करते हैं, भारत की तरह बोलने के लिए भी नहीं। इसके अलावा चीन में भारत के मुकाबले अमीरी-गरीबी की खाई कई गुना अधिक गहरी है। भ्रष्टाचार में भी वह हमसे आगे है। चीन को भारत बनने में अभी कई दशक लगेंगे लेकिन चीन जैसी आर्थिक प्रगति करने में भारत को एक दशक भी नहीं लगेगा। हमारे गणतंत्र की जवानी का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा? हम जरा कल्पना करें कि हमारा गणतंत्र अब से 40 साल बाद कैसा लगेगा? शतायु तक पहुंचते-पहुंचते वह पूर्ण महाशक्ति बन जाएगा। उन राष्ट्रों से भी बेहतर, जो आज महाशक्तियां कहलाते हैं। ये महाशक्तियां भयंकर महाशक्ति हैं। भारत भयंकर नहीं, प्रियकर महाशक्ति बनेगा। भारत महाशक्ति बनता चला जा रहा है लेकिन इस नए विराट रूप में ढलने के लिए न तो वह अपनी जनता का खून पी रहा है और न ही उसने उपनिवेश खड़े किए हैं। कोई भी सच्च लोकतांत्रिक राष्ट्र ऐसा नहीं कर सकता। उसके कुछ नेता या स्वार्थी तबके ऐसा करना चाहें तो भी वे सफल नहीं हो सकते, क्योंकि हर नागरिक को समान मताधिकार है और जनता जागरूक है। ऐसा भारत ज्यों-ज्यों मालदार और ताकतवर होता चला जाएगा, उसकी समृद्धि उसके लोगों में बंटेगी और वह दुनिया के जरूरतमंद राष्ट्रों का सहोदर सिद्ध होगा। उसका रास्ता वह नहीं होगा, जो चीन और अमेरिका का है। उसका अपना और नया रास्ता होगा। साठ वर्ष का यह युवा गणतंत्र जब सौ वर्ष का होगा तो इसकी जवानी अपने शिखर पर होगी। तब क्या भारत में कोई भूखा सोएगा? तब क्या भारत में कोई निरुत्तर होगा? तब क्या ठंड में कुछ लोग सुबह सड़क पर मरे हुए पाए जाएंगे। क्या कोई आदमी इसलिए दम तोड़ेगा कि उसका इलाज न हो सका? नहीं, ऐसा नहीं होगा। जो होगा वह अजूबा होगा। समय के इतिहास में एक विलक्षण गणतंत्र का उदय होगा।
Friday, January 15, 2010
महंगाई का ज्योतिष..
बहुत पहले एक कहावत सुनी थी...अब क्या चुपचाप बैठे हो, महंगाई के असोरा (बरामदा) में...राशन झोला में और पैसा बोरा में..आज की स्थिति देखकर पहले बचपन में सुनी गयी वो कहावत आज भी कितनी सही साबित हो रही है...मज़ेदार बात तो ये है की माननीय कृषि मंत्री कभी इसके लिए ग्लोबल वार्मिंग को जिम्मेदार ठहराते हैं तो कभी कहते हैं की मैं ज्योतिषी नहीं हूँ...भैया...फिर क्या करने बैठे हो....कृषि मंत्रालय में... माना, महंगाई सिर्फ देश में ही नहीं है...हर जगह है...कच्चे तेल की कीमतें ८० डोलोर प्रति बैरल पहुँच गयी है...लेकिन आप कैसी सरकार चला रहे हैं... निजी कम्पनियां फायदा कमा रही हैं...सरकार घाटे में है....आम आदमी परेशान है....गोदामों में गेहूं सड़ रहा है....दाल की फसल कहीं ढंग से नहीं हो रही है आखिर क्यों....इसका जवाब तो आप ही को देना पड़ेगा न मंत्रीजी... कम से कम दाल चावल के साथ ऐसी ब्यवस्था तो कीजिये की आम जनता सुबह सुबह उठकर एक प्याली चाय पिने के पहले ये तो न सोचे कि...चलो छोडो न पीते हैं...नहीं तो चीनी ख़तम हो जाने पे पचास का एक नोट खर्च हो जायेगा...कैसे मंत्री हैं....बाकि हर चीज़ तो महँगी है ही ...किताब कॉपी...पेन पेंसिल...सेन्ट, क्रीम,,यहाँ तक कि एक सेट पैंट शर्ट खरीदने जाते हैं तो कम से कम हज़ार रुपये तो रखने ही पड़ते हैं....जूते तो 1200-1500- के नीचे के ढंग के मिलते ही नहीं..लेकिन फिर भी भारत की सहनशील जनता सब कुछ सहने के लिए तैयार है....तो माननीय पवार साहब...पेट पर हो रहे हमले को रोक लीजिये...नहीं तो हिन्दुस्तानियों ने तो २०० साल की अंगरेजी सरकार को उखाड फेंका था...आपकी यूपीए सरकार किस खेत की मूली है...
Saturday, January 9, 2010
दम तोड़ता रहा जवान....देखते रहा जमघट
तमिलनाडु के तिरूनेलवली में शुक्रवार यानि आठ जनवरी को ऐसी घटना घटी,,,जिसने मानवता को शर्मसार कर दिया...तमिलनाडु पुलिस के एक सब इंस्पेक्टर को कुछ लोगों ने देशी बम मारकर मोटर साइकिल से गिरा दिया...फिर नारियल काटने वाले हंसिया से उसके पैर काट दिये और सिपाही के गर्दन पर भी वार किया,,,,इस सबके बावजूद सिपाही के हौंसले में कोई कमी नहीं आई और वो खुद मदद के लिए उन लोगों को बुलाता रहा जो उसके इस हाल का तमाशा देख रहे थे,,,लेकिन क्या मजाल कि कोई उसकी सहायता के लिए आगे आता,,,,पैर कटा, बम से जख्मी और गर्दन पर वार झेले पुलिस सब इंस्पेक्टर के दर्द की इतनी ही इन्तिहा नहीं रही,,,दुख तो तब हुआ जब तमिलनाडु सरकार के तीन तीन मंत्री अपने काफिले के साथ उस हृदयविदारक घटना को देखते रहे....बाद में पता नहीं, भगवान की कृपादृष्टि हुई या उन्हें खुद-ब खुद सद्बुद्धि आ गई,,,उनमें से कुछ लोग आगे बढ़े और उस जाबांज को अस्पताल ले गये,,,लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी,,,वो जवान मौत को गले लगा चुका था....सवाल उठता है कि क्या सेवा को धर्म मानने वाले देश में इस तरह की घटना बर्दाश्त करने लायक है,,,और खास कर उस इंसान के लिए..जो मरने तक लोगों की सुरक्षा और सेवा के लिए प्रतिबद्ध था,,,पैर कटने और गर्दन पर वार झेलने के बावजूद वो जवान उट कर बैठा,,,लोगों को सहायता के लिए हाथ हिला हिला कर बुलाता रहा,,,कहां गई थी,,,इंसानियत...कहां गई थी मानवता,,,क्या किसी को तरस नहीं आय़ा...उन नेताओं का जमीर कहां सोया था,,,जिनकी सुरक्षा में लगे पुलिस और सुरक्षा बल के जवान दिन रात लगे रहते हैं और अपनी जान तक की परवाह नहीं करते,.,,,बताया जा रहा है कि,,,वो सब इंस्पेक्टर किसी और के चक्कर में जान गंवा बैठा...लेकिन क्या तमिलनाडु में इस तरह किसी को मारे जाने को जायज ठहराया जा सकता है...चाहे वो पुलिस का जवान हो या कोई और,,,इस घटना को देखने के बाद तो यही लगता है कि,,,हम इक्कसवीं सदी के भारत में नहीं, बल्कि बर्बर युग में रह रहे हैं,,,,जरूरत इस बात की है कि,,,मारने वाले को तो इतनी कड़ी सजा दी जाये कि,,,दूसरा कोई इस तरह का घिनौना कारनामा करने से पहले एक हजार बार सोचे...और छोड़ना उन नेताओं को भी नहीं चाहिए,,,जो उस जवान की मौत का तमाशा देखते रहे,,,
Friday, January 8, 2010
जम्मू से सेना हटाने का फैसला
जम्मू कश्मीर से सरकार ने सेना हटाने का फैसला किया है...जो की किसी भी स्थिति में सही नहीं कहा जा सकता...कहा जा रहा है की सरकार ने ये कदम अलगाववादियों को खुश करने के लिए उठाया है....लेकिन जिस राज्य की स्थिति इतनी ख़राब है कि.... कभी आतंकी फिदायीन हमले कर देते हैं तो कभी घाटी में प्रदर्शनकारियों से निपटने में राज्य पुलिस के छक्के छूट जाते हैं...वैसे भी दुश्मन देश पाकिस्तान जिसकी नजर हमेशा कश्मीर पर लगी रहती है और वहां आतंक फ़ैलाने के लिए कुछ भी करने को तैयार है...उस राज्य से मात्र इसलिए सेना हटाई जा रही है...ताकि अलगाववादी खुश हो सकें ...वे अलगाववादी जिनकी न भारत के संविधान में निष्ठा है..और न ही भारत सरकार में...देश के सबसे अशांत राज्य से सेना हटाने का फैसला किसी भी स्थिति में ठीक नहीं कहा जा सकता क्योंकि अगर घाटी में कुछ भी अशांति फ़ैलती है तो विश्व बिरादरी में ये कहा जायेगा कि राज्य में शांति व्यवस्था बनाये रखने सरकार असफल रही है...
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